श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्रमहापूजन
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महत्त्व:
इस अवधूतचिंतन उत्सव में बारह के बारह ज्योतिर्लिंगों का पूजन करने का अवसर श्रद्धावानों को करने मिला। ये बारह ज्योतिर्लिंग भी कुल २४ तत्वों से निर्माण हुए हैं। इनमें बारह आदित्य और ग्यारह रूद्र मिलाकर २३ तत्व हैं और उनकी देखभाल करने वाला प्रजापति यह २४ वा तत्व है। बारह आदित्य यानी बारह सूर्य, जबकि ग्यारह रूद्र यानी विघटन करने वाली, प्रलय करने वाली शक्ति और प्रजापति अर्थात देखभाल करने वाला, परवरिश करने वाला, ये २४ तत्व इकठ्ठे हुए। इनसे स्त्री और पुरुष भेद निर्माण हुए और ये १२ ज्योतिर्लिंग निर्माण हुए। ज्योति और लिंग, शिव और शक्ति इस रूप से ये १२ १२ ज्योतिर्लिंग निर्माण हुए। ये इन २४ तत्त्वों के आराध्य देवता हैं।
इस उत्सव में ऐसे इन महान ज्योतिर्लिंगों का पूजन किया गया। इस श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्र का सबसे पहला पूजन अरुंधतीमाता ने किया है। अगस्त्यऋषि ने जिस प्रथम स्त्री को उपदेश किया, वह अरुंधती माता और उन्हें शिवोपासना करने को कहा और जिस प्रथम पुरुष को उपदेश किया, वे थे वसिष्ठ ऋषि, जिन्हें विष्णु उपासना करने के लिए कहा गया।
ऐसे इन बारह ज्योतिर्लिंगों का पूजन करने से श्रद्धावानों को उनकी बुराई, वासना, दुष्प्रवृत्तियों का विनाश, प्रलय करने के लिए और अच्छी, शुभ, हितकारी चीजों की देखभाल करने का अवसर मिला। जीवन का विकास करने वाली अच्छी चीजों का विकास करना और बुराइयों का विनाश करना, यह शिवशक्ति प्राप्त करने का अवसर इस श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्रमहापूजन से श्रद्धावानॊं को मिला।
रचना:
इस श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्रमहापूजन की रचना चक्राकार थी। इसके केंद्र में तश्तरी में एक नंदादीप हमेशा जलता रहता था। इसके बाद के प्रथम चक्र में जिसे ‘प्रथम विक्रम’ कहा जाता है, उसमे गंगा नदी, पंचमी की चन्द्रलेखा, डमरू, त्रिशूल और नाग इन शिव की आयुधों का रेखाचित्र बनाया था। उसके बाद के चक्र में, जिसे ‘द्वितीय विक्रम’ कहा जाता है, उसमे इन बारह ज्योतिर्लिंगों को स्थापित किया गया था।
ये बारह ज्योतिर्लिंग सीधे-सादे नहीं थे। इनकी रचना में, आकार में एक विलक्षणता थी। इसके पहले ज्योतिर्लिंग का आकार छोटी उंगली (कनिष्ठा) जितना था और उसका रंग पूरा काला था। उसके बाद यह ज्योतिर्लिंग क्रम में बढ़ते गए थे और सबसे आख़िरी ज्योतिर्लिंग का आकार ‘पूर्णपाणि’ यानी पूरे हाथ जितना था। ‘पूरा हाथ’ कंधे से शुरू होकर बीच की ऊँगली की नोक तक आकर ख़त्म होता है। इतनी इस ज्योतिर्लिंग की ऊँचाई थी और उसका रंग धूसर था। इस ज्योतिर्लिंग का रंग काला, स्फटिक और धूसर इस क्रम में घूम गया था। सबसे आख़िरी चक्र में, जिसे ‘तृतीय विक्रम’ कहा जाता है, उसमें रंगीन अनाज के हर चौकोन पर एक एक मंगल कलश रखा गया था और इसका जल सुगंध, कपूर, तुलसी और सुपारी युक्त था। इस पूरी संरचना में नंदादीप की ओर जाने वाला एक प्रकाशमार्ग था। जो श्रद्धावानों के जीवन का भी प्रकाशमार्ग था। अन्दर की आत्मज्योति से श्रद्धावानों का जीवन भी देदीप्यमान, प्रकाशमान होकर उज्ज्वल होने का अवसर मिला था। पूजन के मंत्र के समय श्रद्धावानों को दिये सफेद फूलों से, बेलपत्तियों से और पत्रियों से यानी तेरडा, आगाडा, जास्वंद, पारिजातक, औदुम्बर और पलास इन पत्तियों से उन्होंने ज्योतिर्लिंग का पूजन किया।
इस नियतिचक्रपरिवर्तनप्रदक्षिणा में और इस ज्योतिर्लिंग पूजन में हमने जो पत्री इस्तेमाल की थी, यह कोई साधारण या केवल सुगन्धित फूलों की पत्री नहीं थी, बल्कि महादेव को यही पत्री क्यों पसंद थी, इसकी एक प्यारी कहानी है। शिवजी की पत्नी पार्वती एक नाम ‘अपर्णा’ भी है। महादेव को प्राप्त करने के लिए पार्वती ने बहुत कठोर उपासना की और यह उपासना खंडित न हो, इस लिए पार्वती जगह से उठी नहीं। इस दौरान जो पत्तियाँ नीचे गिरती थीं, उन्हें खाकर पार्वती ने उपासना की थी। आखिर आखिर में इन पेड़ों पर एक भी पत्ता बाकी नहीं रहा, तब ‘अ-पर्णा’ यानी एक भी पत्ता न खाकर उपासना की और शिवजी को प्राप्त किया और इसी वजह से शिवजी को सिर्फ यही पत्ते प्रिय हैं, क्योंकि इन्हीं पत्तों ने उनकी प्रियतमा की रक्षा की थी।
इस पूजन में
१. शिवयोगसागरमन्त्रविधान
२. शिवयोगदर्पण ध्यान
३. डिंडिम आरती
यह क्रम था
पुण्यफल:
शिव-जो लय करता है, प्रलय करता है, विघटन करता है, वह ‘शिव’। इस श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्रमहापूजन से श्रद्धावानों ने अपनी बुराइयाँ, षड्रिपु, आलस, दुर्गुण, विपरित बुद्धि का नाश करने की विनती उस शंकर को, रूद्र को की और अपने अन्दर के अच्छे गुणों की वृद्धि, शुभदायी, आनंददायी चीजों की देखभाल करने की मनोकामना उससे की।
* इस महापूजन से श्रद्धावानों के सभी प्रकार के शत्रुओं की शक्ति क्षीण होती है।
इस अवधूतचिंतन उत्सव में बारह के बारह ज्योतिर्लिंगों का पूजन करने का अवसर श्रद्धावानों को करने मिला। ये बारह ज्योतिर्लिंग भी कुल २४ तत्वों से निर्माण हुए हैं। इनमें बारह आदित्य और ग्यारह रूद्र मिलाकर २३ तत्व हैं और उनकी देखभाल करने वाला प्रजापति यह २४ वा तत्व है। बारह आदित्य यानी बारह सूर्य, जबकि ग्यारह रूद्र यानी विघटन करने वाली, प्रलय करने वाली शक्ति और प्रजापति अर्थात देखभाल करने वाला, परवरिश करने वाला, ये २४ तत्व इकठ्ठे हुए। इनसे स्त्री और पुरुष भेद निर्माण हुए और ये १२ ज्योतिर्लिंग निर्माण हुए। ज्योति और लिंग, शिव और शक्ति इस रूप से ये १२ १२ ज्योतिर्लिंग निर्माण हुए। ये इन २४ तत्त्वों के आराध्य देवता हैं।
इस उत्सव में ऐसे इन महान ज्योतिर्लिंगों का पूजन किया गया। इस श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्र का सबसे पहला पूजन अरुंधतीमाता ने किया है। अगस्त्यऋषि ने जिस प्रथम स्त्री को उपदेश किया, वह अरुंधती माता और उन्हें शिवोपासना करने को कहा और जिस प्रथम पुरुष को उपदेश किया, वे थे वसिष्ठ ऋषि, जिन्हें विष्णु उपासना करने के लिए कहा गया।
ऐसे इन बारह ज्योतिर्लिंगों का पूजन करने से श्रद्धावानों को उनकी बुराई, वासना, दुष्प्रवृत्तियों का विनाश, प्रलय करने के लिए और अच्छी, शुभ, हितकारी चीजों की देखभाल करने का अवसर मिला। जीवन का विकास करने वाली अच्छी चीजों का विकास करना और बुराइयों का विनाश करना, यह शिवशक्ति प्राप्त करने का अवसर इस श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्रमहापूजन से श्रद्धावानॊं को मिला।
रचना:
इस श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्रमहापूजन की रचना चक्राकार थी। इसके केंद्र में तश्तरी में एक नंदादीप हमेशा जलता रहता था। इसके बाद के प्रथम चक्र में जिसे ‘प्रथम विक्रम’ कहा जाता है, उसमे गंगा नदी, पंचमी की चन्द्रलेखा, डमरू, त्रिशूल और नाग इन शिव की आयुधों का रेखाचित्र बनाया था। उसके बाद के चक्र में, जिसे ‘द्वितीय विक्रम’ कहा जाता है, उसमे इन बारह ज्योतिर्लिंगों को स्थापित किया गया था।
ये बारह ज्योतिर्लिंग सीधे-सादे नहीं थे। इनकी रचना में, आकार में एक विलक्षणता थी। इसके पहले ज्योतिर्लिंग का आकार छोटी उंगली (कनिष्ठा) जितना था और उसका रंग पूरा काला था। उसके बाद यह ज्योतिर्लिंग क्रम में बढ़ते गए थे और सबसे आख़िरी ज्योतिर्लिंग का आकार ‘पूर्णपाणि’ यानी पूरे हाथ जितना था। ‘पूरा हाथ’ कंधे से शुरू होकर बीच की ऊँगली की नोक तक आकर ख़त्म होता है। इतनी इस ज्योतिर्लिंग की ऊँचाई थी और उसका रंग धूसर था। इस ज्योतिर्लिंग का रंग काला, स्फटिक और धूसर इस क्रम में घूम गया था। सबसे आख़िरी चक्र में, जिसे ‘तृतीय विक्रम’ कहा जाता है, उसमें रंगीन अनाज के हर चौकोन पर एक एक मंगल कलश रखा गया था और इसका जल सुगंध, कपूर, तुलसी और सुपारी युक्त था। इस पूरी संरचना में नंदादीप की ओर जाने वाला एक प्रकाशमार्ग था। जो श्रद्धावानों के जीवन का भी प्रकाशमार्ग था। अन्दर की आत्मज्योति से श्रद्धावानों का जीवन भी देदीप्यमान, प्रकाशमान होकर उज्ज्वल होने का अवसर मिला था। पूजन के मंत्र के समय श्रद्धावानों को दिये सफेद फूलों से, बेलपत्तियों से और पत्रियों से यानी तेरडा, आगाडा, जास्वंद, पारिजातक, औदुम्बर और पलास इन पत्तियों से उन्होंने ज्योतिर्लिंग का पूजन किया।
इस नियतिचक्रपरिवर्तनप्रदक्षिणा में और इस ज्योतिर्लिंग पूजन में हमने जो पत्री इस्तेमाल की थी, यह कोई साधारण या केवल सुगन्धित फूलों की पत्री नहीं थी, बल्कि महादेव को यही पत्री क्यों पसंद थी, इसकी एक प्यारी कहानी है। शिवजी की पत्नी पार्वती एक नाम ‘अपर्णा’ भी है। महादेव को प्राप्त करने के लिए पार्वती ने बहुत कठोर उपासना की और यह उपासना खंडित न हो, इस लिए पार्वती जगह से उठी नहीं। इस दौरान जो पत्तियाँ नीचे गिरती थीं, उन्हें खाकर पार्वती ने उपासना की थी। आखिर आखिर में इन पेड़ों पर एक भी पत्ता बाकी नहीं रहा, तब ‘अ-पर्णा’ यानी एक भी पत्ता न खाकर उपासना की और शिवजी को प्राप्त किया और इसी वजह से शिवजी को सिर्फ यही पत्ते प्रिय हैं, क्योंकि इन्हीं पत्तों ने उनकी प्रियतमा की रक्षा की थी।
इस पूजन में
१. शिवयोगसागरमन्त्रविधान
२. शिवयोगदर्पण ध्यान
३. डिंडिम आरती
यह क्रम था
पुण्यफल:
शिव-जो लय करता है, प्रलय करता है, विघटन करता है, वह ‘शिव’। इस श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्रमहापूजन से श्रद्धावानों ने अपनी बुराइयाँ, षड्रिपु, आलस, दुर्गुण, विपरित बुद्धि का नाश करने की विनती उस शंकर को, रूद्र को की और अपने अन्दर के अच्छे गुणों की वृद्धि, शुभदायी, आनंददायी चीजों की देखभाल करने की मनोकामना उससे की।
* इस महापूजन से श्रद्धावानों के सभी प्रकार के शत्रुओं की शक्ति क्षीण होती है।
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