नियतीचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा
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नियतीचक्र में प्रत्येक मनुष्य अटका होता है। प्रत्येक मनुष्य की एक अलग नियती है। वह उसके देह के प्रभामंडल (ऑरा) से संबंधित होती है। जिस प्रकार हर व्यक्ति की नियती अलग होती है, उसी प्रकार से उसके परिवार की एक अलग नियती होती है। वह जिस चाल/सोसायटी
में रहता है, उस चाल/सोसायटी की एक अलग नियती होती है। साथ ही, वह चाल / सोसायटी जिस गाँव में है, उस गाँव की एक अलग नियती होती है। वह गाँव जिस राज्य में है, उस राज्य की भी एक अलग नियती होती है। लेकिन फिर भी स्व-नियती ही सबसे बलवान होती है। उदाहरण के तौर पर, किसी बस की दुर्घटना
होती है और उसके सारे प्रवासियों की मृत्यु होती है, लेकिन एक ही व्यक्ति जीवित रहता है; अर्थात उस बस की नियतीनुसार बस की दुर्घटना निश्चित थी, लेकिन उस जीवित व्यक्ति की नियतीनुसार उसे उस वक्त
मौत नहीं थी।
मेरे स्व-नियतीचक्र में परिवर्तन करने की जिम्मेदारी, सामर्थ्य,
क्षमता, कर्तृत्व मुझमें ही है। मेरी नियती एवं मेरे आसपास की परिस्थिति मैं निश्चित रूप से बदल सकता हूँ। मैं मेरे नियतीचक्र से टक्कर ले सकता हूँ । लेकिन उसके लिए मेरा मेरे ईश्वर पर
अत्यंत विश्वास होना ज़रूरी है। यह नियतीचक्र को बदलने की ताकत मुझे इस प्रदक्षिणा से मिली। इसीलिये इसका नाम 'नियतिचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा’ है।
जिस बैक्टेरिया से टायफौईड रोग
होता है, उस 'साल्मोनेला टायफी' पर या जिस व्हायरस से पोलिओ होता है, उस पोलिओ व्हायरस पर वैज्ञानिक प्रयोग करते हैं और उन्हीं व्हायरसों / बैक्टेरियाज़ को मनुष्य के शरीर में चुभाते है, जिससे
मनुष्य को उस रोग की बाधा नहीं होती। इसी को ‘रोगप्रतिबंधक टीका’ कहते हैं। यहाँ पर कुछ ऐसे ही हुआ। जो २४ तत्त्व मनुष्य का घात करते हैं, उन घातक तत्वो को एक विशिष्ट प्रक्रिया से, 'दत्तप्रक्रिया’ से, दत्त के इन चैनेल्स में से २४ प्रक्रियाओं द्वारा रूपांतरित किया गया।
उन्हें ही ‘व्हैक्सीन’ या ‘टीका’ कहां जाता है एवं यह टीका लगाने की जगह ही ‘धन्य प्रदक्षिणा’, विलक्षण प्रदक्षिणा या नियतिचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा है|
इस प्रदक्षिणा की वजह से, इन २४ गुरुतत्त्वों की उपासना, पूजन, निदिध्यास के कारण रोगजंतुओं का रूपांतरण टीके में हुआ, बैक्टीरिया का रूपांतरण ‘व्हैक्सीन’ में हुआ, अर्थात् जिससे रोग होता है, उसका रूपांतरण रोगनिवारक में हुआ| इसका अर्थ यह है कि जो चैनेल है, वह एक ही है, लेकिन विरुद्ध दिशा में उपयोग में लाया गया; जो आज तक अहितकारक, नुकसानदायक था, वही इस प्रदक्षिणा से हितकारक और उपायकारक बन गया| दुनिया की प्रत्येक चीज में अच्छे और बुरे गुण होते हैं| उनमें से अच्छे का स्वीकार और बुरे गुणो से इन्कार कैसे करना है, अर्थात अपने शरीर को, मन को, प्राण को, बुद्धि को एवं संपूर्ण जीवन को रोगमुक्त, खेदमुक्त, दुखमुक्त कैसे करना है, इसका मार्ग ही यह २४ गुरुतत्त्वों की प्रदक्षिणा अर्थात् नियतिचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा है|
इस प्रदक्षिणा के कुल तीन अंग थे| -
१) निर्वृत्तशूर्प (निर्वृत्तशूर्प) द्वार व पृथक्कारिका द्वार
२) ईषद्पृथक्कारिका
३) दत्तात्रेय अवधूत के २४ गुरु
उपरी तीनों अंगो का बार बार अध्ययन करना, पढना, उसपर चिंतन करना तथा उसके अनुसार अपनी मनोबुद्धि में बदलाव लाने के लिए निरंतर प्रयास करना, यह इस प्रदक्षिणा का एक भाग था; वहीं, यह 'धन्य धन्य प्रदक्षिणा' अधिक से अधिक बार करना, उन २४ गुरुतत्त्वों का पूजन करना, 'धन्य धन्य प्रदक्षिणा' के विलक्षण मार्ग में शरीर से, मन से, बुद्धि से एवं प्राण से प्रवास करना, यह इसका दूसरा भाग था|
इस प्रदक्षिणा मार्ग की खासियत अर्थात प्रत्येक व्यक्ति यह प्रदक्षिणा करते समय उसके शरीर की गतिविधि इस प्रकार से हो रही थी कि हर एक की रीड की हड्डियों की गतिविधियों की दिशा में एवं रेखा में से ॐकार की आकृति तैयार हुई। अर्थात यह नियतीचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा करते समय प्रत्येक व्यक्ति स्वयं किये कष्टों से, प्रयासों से और इन २४ गुरुतत्त्वों की साक्षी से ॐकार तैयार कर रहा था, यही इस प्रदक्षिणा की कुंजी (मर्म) थी |
सूप में रखीं फुल की पंखुड़ियाँ, बेल के पत्ते एवं पत्री को उन २४ गुरुतत्त्वों के प्रतीकों पर चढ़ाना था। यह प्रदक्षिणा करते समय उन २४ गुरुतत्त्वों के प्रतीकों की आराधना, पूजन एवं निदिध्यास करना था। फिर इन्हीं २४ गुरुतत्त्वों के कारण श्रद्धावानों के २४ चैनेल्स को उस सद्गुरुतत्त्व की कृपा प्राप्त होने का अवसर मिलनेवाला था।
इन सभी २४ गुरुतत्त्वों का पूजन करने के बाद दत्तात्रेय अवधूत की प्रतिमा पर पंचामृत का प्रोक्षण किया। बहुत ही विलोभनीय ऐसी इस अवधूत की प्रतिमा के सामने उनकी पादुका रखीं थीं। वहीं पर रखे पलाश के काष्ठों से उनपर पंचामृत का प्रोक्षण किया गया।
पश्चात् सूप में बाकी रहे तिनके और कंकरोंसहित ‘पृथक्कारिका’ द्वार से बाहर जाना था। इस पृथक्कारिका द्वार से बाहर आकर परमपूज्य अनिरुद्ध की ‘इशद् पृथ्क्कारिका’ अर्थात इष्ट करनेवाला यह कोलंडर (चालनी) था, जिसमे श्रद्धावान को अपने तिनके और कंकरों को रिक्त करना था। पूर्ण विश्वास से एवं दृढ भाव से इस सूप में जमा किये तिनके, कंकरों को उन्हें दे देना था। उसीसे अपना नियतिचक्र बदलने का मार्ग श्रद्धावान को प्राप्त होनेवाला था।
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