श्रीअवधूतचिंतन - संकल्पना
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परमेश्वर ने मनुष्य को दिया हुआ अभूतपूर्व दान यानी यह नरजन्म। पिछले जन्मों का प्रारब्ध बुरा होते हुए भी उसने मुझे इस जन्म में तंदुरुस्ती प्रदान की। सद्सद्विवेकबुद्धि दी। जीवन में पुरुषार्थ करने के लिए शरीर दिया। दरअसल उसने मुझपर इतने उपकार किए हैं कि मै उन्हें चुका ही नहीं सकता । लेकिन फिर उसने प्रदान किया हुआ जन्म आलस, स्वार्थ, मत्सर, भय, न्यूनगंड, अक्षमता, अभागापन में व्यतीत करने में क्या अर्थ है? फिर इस जीवनमृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने के लिए आखिर क्या करना होगा, यही हम समझ नहीं पाये। भक्ति किस तरह से करनी है, वह भी समझ में नहीं आया। हमारा जीवन सुखी, समृद्ध, शांत, पुष्ट, तुष्ट, कैसे कर सकते हैं, वह भी समझ में नहीं आया। आखिर उस परमेश्वर को मेरी दया आ गई, क्योंकि ‘वह ऐसा ही है’। 'लाभेवीण प्रीति' (बिना किसी कारण के प्रेम करना) यही उसका स्वभाव है और इसी लिए उसने उस परमात्मा को, सद्गुरुतत्त्व को जन्म दिया। सिर्फ और सिर्फ मेरे कल्याण के लिए, मुझे नव-अंकुर-ऐश्वर्य प्राप्त करा देने के लिए।
ज़मीन से जो आद्य वटवृक्ष उगता है, वही है यह दत्तगुरु, परमेश्वर। उससे जो एक शाखा निकलती है, वह है आदिमाता - गायत्री - अनसूया - महिषासुरमर्दिनी। उस शाखा से जो जटा उगती है, वह पृथ्वी की तरफ आने लगती है। वह जटा यानी भगवान दत्तात्रेय और वह जटा जिस क्षण ज़मीन को स्पर्श करती है, उससे जड़ें निकलती हैं और उसका पेड़ बनता है, वही यह परमात्मा-महाविष्णु-परमशिव-सद्गुरुतत्व, उस गायत्री का पुत्र।
हम सामान्य मनुष्य हैं। गलतियाँ करकरके जीते हैं। क्या सही, क्या ग़लत इसका ठीक से ज्ञान नहीं होता। दुख, निराशा, डर, परिस्थिति, गलतियाँ आदि से हम घिरे होते हैं। जीवन में आने वाले संकट, कठिनाइयाँ, परेशानियाँ इनसे घिरे रहते हैं। इन सबसे बाहर निकलने के लिए व्याकुल, अधीर हुए होते हैं। लेकिन मेरे पंखों में इन सबसे बाहर निकलने की शक्ति नहीं होती। उन पंखों को समय समय पर शक्ति देने का कार्य यह सद्गुरुतत्व, कुछ चीजों का संकल्प करके करता रहता है।
मेरा उद्धार मुझे स्वयं को ही करना होता है। मेरे आसपास की परिस्थिति बदलने के लिए पहले मुझे स्वयं को बदलना होता है। लेकिन उसके लिए आवश्यकता होती है मेरी भक्ति की और सद्गुरु के संकल्प की और उसमें से ही एक संकल्प है, 'श्रीअवधूतचिंतन'।
'श्रीअवधूतचिंतन' यह बहुत ही दुर्लभ घटना थी।बहुत ही विलक्षण, अद्भुत और मनोहारी ऐसा उसका स्वरूप था। श्रीदत्तयाग, नियतिचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा, सर्वतोभद्र कुंभयात्रा व कैलाशभद्र महापूजन ये सभी बातें एकसाथ यानी 'श्रीअवधूतचिंतन'।
एक विशिष्ट प्रेरणा से, विशिष्ट संख्या से और आवश्यक उतने स्पंदन पूर्ण होने के कारण घटित होनेवाली यह घटना थी। सन १९९६ से हर साल एक इस प्रकार चार साल में शिर्डी, अक्कलकोट, आलंदी, शांतादुर्गा-मंगेशी यहाँ आयोजित की हुईं चार रसयात्राएँ, साथ ही धर्मचक्रस्थापना। फिर सन २००१ की पंढरपूर भावयात्रा....उसी दौरान सन २००० में हुआ व्यंकटेश उत्सव। सन २००३ का जगन्नाथ उत्सव। सन २००४ का गायत्री महोत्सव और फिर सन २००७ में गुरुक्षेत्रम की स्थापना इस तरह से यह सफ़र था। इसी दौरान सन २००७ में परमपूज्य सद्गुरु अनिरुद्ध ने आनेवाले कठिन समय के लिए श्रद्धावानो को संरक्षक आध्यात्मिक कवच मिल जाए, इसके लिए हर गुरुवार को ‘आराधनाज्योती’ उपासना का शुभारम्भ किया।
ये आराधनाज्योती जैसे जैसे एक विशिष्ट क्रम में पूरी होतीं गईं, उसके बाद की यह आराधना थी। इससे हम सभी के लिए एक अभेद्य सुरक्षा कवच निर्माण हुआ है, जो आने वाले समय के लिए सामूहिक रूप से, सामाजिक दृष्टिकोण से और व्यक्तिगत दृष्टिकोण से उतना ही महत्त्वपूर्ण साबित हो रहा है।
श्रीअवधूत दत्तात्रेय के २४ गुरु, ये इस विश्व के ऐसे २४ तत्व हैं, जो उस महाविष्णु की- परमशिव की - सद्गुरु दत्तात्रेय की कृपा मनुष्य को प्राप्त करा देने वाले २४ चॅनेल्स हैं।
‘श्रीदत्तयाग’ से शरीर को, मन को, बुद्धि को और प्राण को प्राप्त हुआ सुरक्षाकवच।
इस उत्सव में की गयी ‘नियतीचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा’ से मनुष्य के २४ चॅनेल्स पर २४ प्रक्रियाएँ करके, जो चॅनेल्स हमको दुखदायी, क्लेशकारक होते हैं, उनको इस प्रदक्षिणा के निदिध्यास द्वारा शुद्ध करा देनेवाला रोगनिवारक टीका,
‘श्रीसर्वतोभद्र कुंभयात्रा’ अर्थात पूर्ण रूप से कल्याण करने वाली यात्रा और
‘श्रीद्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्र महापूजन’ अर्थात बारह ज्योतिर्लिंगों का महापूजन.।
इस उत्सव से श्रद्धालुओं को उपलब्ध होनेवालीं ये चतुर्विध बातें यानी हमारे सब प्रयासों को सद्गुरुतत्त्व का बल प्राप्त करा देकर हमारा जीवन सुखी, समृद्ध, समाधानी, आनंदमयी बनानेवाले चार चरण थे (चतुर्वर्ग उपासना)।
।। श्रीअनिरुद्धार्पणमस्तु ।।
स्वप्नीलसिंह सुचितसिंह दत्तोपाध्ये
ज़मीन से जो आद्य वटवृक्ष उगता है, वही है यह दत्तगुरु, परमेश्वर। उससे जो एक शाखा निकलती है, वह है आदिमाता - गायत्री - अनसूया - महिषासुरमर्दिनी। उस शाखा से जो जटा उगती है, वह पृथ्वी की तरफ आने लगती है। वह जटा यानी भगवान दत्तात्रेय और वह जटा जिस क्षण ज़मीन को स्पर्श करती है, उससे जड़ें निकलती हैं और उसका पेड़ बनता है, वही यह परमात्मा-महाविष्णु-परमशिव-सद्गुरुतत्व, उस गायत्री का पुत्र।
हम सामान्य मनुष्य हैं। गलतियाँ करकरके जीते हैं। क्या सही, क्या ग़लत इसका ठीक से ज्ञान नहीं होता। दुख, निराशा, डर, परिस्थिति, गलतियाँ आदि से हम घिरे होते हैं। जीवन में आने वाले संकट, कठिनाइयाँ, परेशानियाँ इनसे घिरे रहते हैं। इन सबसे बाहर निकलने के लिए व्याकुल, अधीर हुए होते हैं। लेकिन मेरे पंखों में इन सबसे बाहर निकलने की शक्ति नहीं होती। उन पंखों को समय समय पर शक्ति देने का कार्य यह सद्गुरुतत्व, कुछ चीजों का संकल्प करके करता रहता है।
' उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्।'
मेरा उद्धार मुझे स्वयं को ही करना होता है। मेरे आसपास की परिस्थिति बदलने के लिए पहले मुझे स्वयं को बदलना होता है। लेकिन उसके लिए आवश्यकता होती है मेरी भक्ति की और सद्गुरु के संकल्प की और उसमें से ही एक संकल्प है, 'श्रीअवधूतचिंतन'।
'श्रीअवधूतचिंतन' यह बहुत ही दुर्लभ घटना थी।बहुत ही विलक्षण, अद्भुत और मनोहारी ऐसा उसका स्वरूप था। श्रीदत्तयाग, नियतिचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा, सर्वतोभद्र कुंभयात्रा व कैलाशभद्र महापूजन ये सभी बातें एकसाथ यानी 'श्रीअवधूतचिंतन'।
एक विशिष्ट प्रेरणा से, विशिष्ट संख्या से और आवश्यक उतने स्पंदन पूर्ण होने के कारण घटित होनेवाली यह घटना थी। सन १९९६ से हर साल एक इस प्रकार चार साल में शिर्डी, अक्कलकोट, आलंदी, शांतादुर्गा-मंगेशी यहाँ आयोजित की हुईं चार रसयात्राएँ, साथ ही धर्मचक्रस्थापना। फिर सन २००१ की पंढरपूर भावयात्रा....उसी दौरान सन २००० में हुआ व्यंकटेश उत्सव। सन २००३ का जगन्नाथ उत्सव। सन २००४ का गायत्री महोत्सव और फिर सन २००७ में गुरुक्षेत्रम की स्थापना इस तरह से यह सफ़र था। इसी दौरान सन २००७ में परमपूज्य सद्गुरु अनिरुद्ध ने आनेवाले कठिन समय के लिए श्रद्धावानो को संरक्षक आध्यात्मिक कवच मिल जाए, इसके लिए हर गुरुवार को ‘आराधनाज्योती’ उपासना का शुभारम्भ किया।
ये आराधनाज्योती जैसे जैसे एक विशिष्ट क्रम में पूरी होतीं गईं, उसके बाद की यह आराधना थी। इससे हम सभी के लिए एक अभेद्य सुरक्षा कवच निर्माण हुआ है, जो आने वाले समय के लिए सामूहिक रूप से, सामाजिक दृष्टिकोण से और व्यक्तिगत दृष्टिकोण से उतना ही महत्त्वपूर्ण साबित हो रहा है।
श्रीअवधूत दत्तात्रेय के २४ गुरु, ये इस विश्व के ऐसे २४ तत्व हैं, जो उस महाविष्णु की- परमशिव की - सद्गुरु दत्तात्रेय की कृपा मनुष्य को प्राप्त करा देने वाले २४ चॅनेल्स हैं।
‘श्रीदत्तयाग’ से शरीर को, मन को, बुद्धि को और प्राण को प्राप्त हुआ सुरक्षाकवच।
इस उत्सव में की गयी ‘नियतीचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा’ से मनुष्य के २४ चॅनेल्स पर २४ प्रक्रियाएँ करके, जो चॅनेल्स हमको दुखदायी, क्लेशकारक होते हैं, उनको इस प्रदक्षिणा के निदिध्यास द्वारा शुद्ध करा देनेवाला रोगनिवारक टीका,
‘श्रीसर्वतोभद्र कुंभयात्रा’ अर्थात पूर्ण रूप से कल्याण करने वाली यात्रा और
‘श्रीद्वादश ज्योतिर्लिंग कैलाशभद्र महापूजन’ अर्थात बारह ज्योतिर्लिंगों का महापूजन.।
इस उत्सव से श्रद्धालुओं को उपलब्ध होनेवालीं ये चतुर्विध बातें यानी हमारे सब प्रयासों को सद्गुरुतत्त्व का बल प्राप्त करा देकर हमारा जीवन सुखी, समृद्ध, समाधानी, आनंदमयी बनानेवाले चार चरण थे (चतुर्वर्ग उपासना)।
।। श्रीअनिरुद्धार्पणमस्तु ।।
स्वप्नीलसिंह सुचितसिंह दत्तोपाध्ये
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