श्रीदत्तयाग
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महत्व :
तीन दिन तक चला यह दत्तयाग कोई ऐसा वैसा होम अथवा यज्ञ नहीं था, बल्कि वह तो एक बहुत ही सुन्दर घटना थी। इस याग के लिए पिछले तीन वर्षों से कुल ग्यारह व्यक्ति अनुष्ठान कर रहे थे। उन व्यक्तियों का यह विशिष्ट अनुष्ठान विशिष्ट समय पर उठकर पूरा हुआ और इसीलिए यह दत्तयाग किया गया था।
श्रीगुरुक्षेत्रम् का श्रीपुरुषार्थ क्षमादान यंत्र, श्रीदत्तगुरु की एकमात्र अद्वितीय तसबीर, एकमात्र अव्दितीय ऐसा धर्मासन इनकी एकत्रित प्रातिनिधिकता और बल इनका इस याग के लिए इस्तेमाल किया गया था। इस याग के मन्त्र पूर्ण शुद्ध और वैदिक थे और ये मन्त्र श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराजप्रणित थे।
कार्यक्रमविधि:
प्रथमदिन - समय सुबह ८.३० से सायंकाल सूर्यास्त तक।
यजमान व ब्रम्हवृंद के द्वारा सकलजनों के लिए प्रायश्चित्त, सकलशांतिपाठ, समग्रप्रधानसंकल्प, श्रीब्रम्हणस्पतिपूजन, पुण्याहवाचन, सकलमातृकापूजन, आयुष्यमंत्रजप, नांदीश्राद्ध, श्रीवर्धिनीपूजन जलयात्रा व मंडपप्रवेश, कुंडस्थदेवता पूजन, फिर आचार्यादि ऋत्विककरण। ‘ऋत्विक’ यानी यज्ञ करनेवाले, उस यज्ञ का मंत्रोच्चारण करनेवाले ब्रम्हवृंद इन्हों ने अपनी स्वयं की स्थापना की। उसके बाद श्री ब्रम्हणस्पतिसूक्त का अनुष्ठान प्रारंभ, वास्तुमंडल पूजन, योगीनिमंडल पूजन, क्षेत्रपाल पूजन, प्रधानमंडल स्थापना, ऐरणीमंथन अर्थात वैदिक पद्धति से लकड़ी के दो यंत्रों के सहारे घर्षण करके, मंथन करके पवित्र मन्त्र के सहारे अग्नि उत्पन्न किया गया। बाद में नवग्रहमंडल पूजन, रुद्रमंडल स्थापना, मुख्यप्राण श्रीदत्तात्रेय की प्राणप्रतिष्ठा, रुद्राभिषेक, ग्रहयज्ञ, श्रीदत्तमालामंत्र के ५४ बार पुरश्चरण से याग किया गया।
स्थापितदेवताओंका सायंपूजन, नैवेद्य एवं आरती।
द्वितीय दिन - समय सुबह ८.३० से सायंकाल सूर्यास्त तक।
यजमान एवं ब्रम्हवृंद के द्वारा शान्तिपाठ, संकल्प, स्थापितदेवतापूजन, ब्रम्हणस्पतिसूक्त अनुष्ठान, मुख्यप्राण श्रीदत्तात्रेय को पुरुषसूक्त के सहस्त्रावर्तन से अभिषेक, उसके बाद चंदन एवं केशर का लेपन, पुरुषसूक्त इनके द्वारा प्रधान यज्ञ, श्रीदत्तमालामंत्र के ५४ बार पुरश्चरण से याग किया गया। फिर स्थापितदेवतांओं का सायंपूजन, नैवेद्य अर्पण एवं आरती हुई।
तृतीय दिन -समय सुबह ८.३०से समाप्त होने तक
तीन दिन तक चला यह दत्तयाग कोई ऐसा वैसा होम अथवा यज्ञ नहीं था, बल्कि वह तो एक बहुत ही सुन्दर घटना थी। इस याग के लिए पिछले तीन वर्षों से कुल ग्यारह व्यक्ति अनुष्ठान कर रहे थे। उन व्यक्तियों का यह विशिष्ट अनुष्ठान विशिष्ट समय पर उठकर पूरा हुआ और इसीलिए यह दत्तयाग किया गया था।
श्रीगुरुक्षेत्रम् का श्रीपुरुषार्थ क्षमादान यंत्र, श्रीदत्तगुरु की एकमात्र अद्वितीय तसबीर, एकमात्र अव्दितीय ऐसा धर्मासन इनकी एकत्रित प्रातिनिधिकता और बल इनका इस याग के लिए इस्तेमाल किया गया था। इस याग के मन्त्र पूर्ण शुद्ध और वैदिक थे और ये मन्त्र श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराजप्रणित थे।
कार्यक्रमविधि:
प्रथमदिन - समय सुबह ८.३० से सायंकाल सूर्यास्त तक।
यजमान व ब्रम्हवृंद के द्वारा सकलजनों के लिए प्रायश्चित्त, सकलशांतिपाठ, समग्रप्रधानसंकल्प, श्रीब्रम्हणस्पतिपूजन, पुण्याहवाचन, सकलमातृकापूजन, आयुष्यमंत्रजप, नांदीश्राद्ध, श्रीवर्धिनीपूजन जलयात्रा व मंडपप्रवेश, कुंडस्थदेवता पूजन, फिर आचार्यादि ऋत्विककरण। ‘ऋत्विक’ यानी यज्ञ करनेवाले, उस यज्ञ का मंत्रोच्चारण करनेवाले ब्रम्हवृंद इन्हों ने अपनी स्वयं की स्थापना की। उसके बाद श्री ब्रम्हणस्पतिसूक्त का अनुष्ठान प्रारंभ, वास्तुमंडल पूजन, योगीनिमंडल पूजन, क्षेत्रपाल पूजन, प्रधानमंडल स्थापना, ऐरणीमंथन अर्थात वैदिक पद्धति से लकड़ी के दो यंत्रों के सहारे घर्षण करके, मंथन करके पवित्र मन्त्र के सहारे अग्नि उत्पन्न किया गया। बाद में नवग्रहमंडल पूजन, रुद्रमंडल स्थापना, मुख्यप्राण श्रीदत्तात्रेय की प्राणप्रतिष्ठा, रुद्राभिषेक, ग्रहयज्ञ, श्रीदत्तमालामंत्र के ५४ बार पुरश्चरण से याग किया गया।
स्थापितदेवताओंका सायंपूजन, नैवेद्य एवं आरती।
द्वितीय दिन - समय सुबह ८.३० से सायंकाल सूर्यास्त तक।
यजमान एवं ब्रम्हवृंद के द्वारा शान्तिपाठ, संकल्प, स्थापितदेवतापूजन, ब्रम्हणस्पतिसूक्त अनुष्ठान, मुख्यप्राण श्रीदत्तात्रेय को पुरुषसूक्त के सहस्त्रावर्तन से अभिषेक, उसके बाद चंदन एवं केशर का लेपन, पुरुषसूक्त इनके द्वारा प्रधान यज्ञ, श्रीदत्तमालामंत्र के ५४ बार पुरश्चरण से याग किया गया। फिर स्थापितदेवतांओं का सायंपूजन, नैवेद्य अर्पण एवं आरती हुई।
तृतीय दिन -समय सुबह ८.३०से समाप्त होने तक
यजमान और ब्रम्हवृंद के द्वारा शान्तिपाठ, संकल्प, स्थापितदेवतापूजन और मुख्यप्राण श्रीदत्तात्रेय को रुद्राभिषेक, मुख्यप्राण श्रीदत्तात्रेय पर 'भोःदत्तगुरु' इस मन्त्र से १०८ बार तुलसी-अर्चन, उत्तरांगहवन, बलिदान, पूर्णाहुति, महानैवेद्य, आरती, श्रेयोदान किया गया।
पुण्यफल:
पूर्णशुद्ध, उर्जायुक्त वैदिकमन्त्रों से यह दत्तयाग किया गया था। इससे प्राप्त होनेवाला पुण्यफल प्रत्येक श्रद्धावान को मिला है। इस दत्तयाग से प्रत्येक श्रद्धावान के शरीर को, मन को, बुद्धि को एवं प्राण को चतुर्विध अभेद्य सुरक्षाकवच प्राप्त करने का अवसर मिला। यह ऐसी सुरक्षा आगे आने वाले समय के लिए सामूहिक रूप से, सामाजिक दृष्टिकोण से तथा व्यक्तिगत दृष्टिकोण से भी उतनी ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है।
साथ ही, इस दत्तयाग का पुण्यफल यानी 'धन्य धन्य प्रदक्षिणा', विलक्षण प्रदक्षिणा अर्थात् नियतिचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा, जो प्रत्येक श्रद्धावान की, उसे ग्रसित रोगजंतुओं से रक्षा करनेवाला रोगप्रतिबंधक टीका प्राप्त कराके देनेवाली थी।
श्रीसर्वतोभद्रकुंभ यात्रा
महत्त्व -
भारतीयों के मन में हजारों सालों से एक बहुत ही सुंदर ध्येय होता है, वह है 'श्रीसर्वतोभद्रकुंभयात्रा'। यानी कि काशी जाकर वहाँ का गंगाजल कावर में भरकर रामेश्वरम् जाना और उस रामेश्वरम् लिंग पर अभिषेक करना और फिर रामेश्वरम् के पास के कन्याकुमारी का पानी अर्थात् तीन समन्दरों का संगम जहाँ होता है, वहाँ का पानी लाकर काशीविश्वेश्वर पर अभिषेक करना। इसी यात्रा को 'श्रीसर्वतोभद्रकुंभयात्रा' कहा जाता है। पिछले हज़ारों वर्षों से प्रत्येक वैदिक मन, भारतीय हिंदू मन यह यात्रा करने के लिए जी-जान से प्रयास करता है। सर्वतोभद्र यानी सम्पूर्ण रूप से कल्याण करनेवाली यात्रा।
काशीविश्वनाथ- 'नाथ' इस शब्द का हमेशा विष्णु के लिए इस्तेमाल किया जाता है; वहीं, रामेश्वर - 'ईश्वर' इस शब्द का हमेशा शिव के लिए इस्तेमाल किया जाता है। परन्तु विश्वनाथ एवं रामेश्वर ये दोनों ईश्वर के अर्थात् शिव के ही रूप हैं। विश्वनाथ प्रतिपालन करने वाला और रामेश्वर शत्रुओं का नाश करने वाला। ऐसे ये विश्वनाथ एवं रामेश्वर इन दोनों की यह यात्रा है। काशीविश्वनाथ का अर्थात् गंगाजल का उस रामेश्वरम् पर अभिषेक करना और कन्याकुमारी, जो उस शिव की प्रतीक्षा करते हुए, उसकी आराधना करते हुए उस शिव में ही विलीन हुई भक्त, वहाँ के तीन समुद्रों के संगम के पानी का उस काशीविश्वनाथ पर अभिषेक करना। यही उस जीव-शिव की भेंट है।
कालीमाता बोले संगे बोले कन्याकुमारी ही
अन्नपूर्णा ज्याचे हाती दत्तगुरू एकमुखी।
वह अन्नपूर्णा यानी शिव की अर्धांगिनी।
कन्याकुमारी यानी जीव-शिव को जोड़नेवाला सेतु; वहीं, कालीमाता यानी साक्षात् महिषासुरमर्दिनी, इनकी यह यात्रा है । इसीलिए वह सम्पूर्ण रूप से कल्याण करने वाली है और इसीलिए यहाँ की प्रदक्षिणा का मार्ग नामाकृति है।
रचना:
इस सर्वतोभद्र कुंभयात्रा में एक तरफ श्रीकाशीविश्वेश्वर के गंगाजल का जलाशय था। उसके पास ही श्रीकाशीविश्वेश्वर की तस्वीर और उसके आगे उसका शिवलिंग रखा गया था। वहीं, दूसरी तरफ श्रीरामेश्वरम् के पानी का जलाशय और उसके पास श्रीरामेश्वर की तस्वीर और शिवलिंग रखा गया था।
यह यात्रा करने वाले श्रद्धावानों को एक कावर दी गई। उन्होंने यह कावर गंगाजल से भरकर और नामप्रदक्षिणा करके, उस जल का रामेश्वरम् पर अभिषेक किया और यह अभिषेक करते समय 'पार्वतीपते हर हर महादेव' यह गजर किया गया।
पुण्यफल:
शिव की राह देखते हुए, उसकी आराधना करते हुए कन्याकुमारी यह भक्त उनमें ही विलीन हो गई, एकरूप हुई। यह यात्रा मेरे जीव-शिव का मिलन करने वाला ऐसा ही एक सेतु थी। जीव-शिव का मीलन यानी मेरे मन को पवित्र बुद्धि की आज्ञा से बनाना, बदलवाना, आचरण करने को कहना। यह यात्रा करते समय कावर में पानी लेकर उस शिवशंकर को अभिषेक करते हुए श्रद्धावानों का शरीर थक गया, उस मन को बुद्धि की तरह बर्ताव करने को कहा और वहीँ श्रद्धावानों के जीव-शिव का मीलन हुआ। इस यात्रा ने श्रद्धावानों को विवेक प्रदान किया। जीवन में शुभ, हितकारी बातें करके जीवन सुखमय आनंददायी बनाने के लिए अशुभ अहितकारक चीजों का विनाश करना, यह हमें यह विवेक सिखाता है, यह सद्सद्विवेकबुद्धि वह प्रदान करता है।
* कुंभयात्रा से हमारे मन का भूतकाल का - भूतों का भय कम होता है।
पुण्यफल:
पूर्णशुद्ध, उर्जायुक्त वैदिकमन्त्रों से यह दत्तयाग किया गया था। इससे प्राप्त होनेवाला पुण्यफल प्रत्येक श्रद्धावान को मिला है। इस दत्तयाग से प्रत्येक श्रद्धावान के शरीर को, मन को, बुद्धि को एवं प्राण को चतुर्विध अभेद्य सुरक्षाकवच प्राप्त करने का अवसर मिला। यह ऐसी सुरक्षा आगे आने वाले समय के लिए सामूहिक रूप से, सामाजिक दृष्टिकोण से तथा व्यक्तिगत दृष्टिकोण से भी उतनी ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है।
साथ ही, इस दत्तयाग का पुण्यफल यानी 'धन्य धन्य प्रदक्षिणा', विलक्षण प्रदक्षिणा अर्थात् नियतिचक्रपरिवर्तन प्रदक्षिणा, जो प्रत्येक श्रद्धावान की, उसे ग्रसित रोगजंतुओं से रक्षा करनेवाला रोगप्रतिबंधक टीका प्राप्त कराके देनेवाली थी।
श्रीसर्वतोभद्रकुंभ यात्रा
महत्त्व -
भारतीयों के मन में हजारों सालों से एक बहुत ही सुंदर ध्येय होता है, वह है 'श्रीसर्वतोभद्रकुंभयात्रा'। यानी कि काशी जाकर वहाँ का गंगाजल कावर में भरकर रामेश्वरम् जाना और उस रामेश्वरम् लिंग पर अभिषेक करना और फिर रामेश्वरम् के पास के कन्याकुमारी का पानी अर्थात् तीन समन्दरों का संगम जहाँ होता है, वहाँ का पानी लाकर काशीविश्वेश्वर पर अभिषेक करना। इसी यात्रा को 'श्रीसर्वतोभद्रकुंभयात्रा' कहा जाता है। पिछले हज़ारों वर्षों से प्रत्येक वैदिक मन, भारतीय हिंदू मन यह यात्रा करने के लिए जी-जान से प्रयास करता है। सर्वतोभद्र यानी सम्पूर्ण रूप से कल्याण करनेवाली यात्रा।
काशीविश्वनाथ- 'नाथ' इस शब्द का हमेशा विष्णु के लिए इस्तेमाल किया जाता है; वहीं, रामेश्वर - 'ईश्वर' इस शब्द का हमेशा शिव के लिए इस्तेमाल किया जाता है। परन्तु विश्वनाथ एवं रामेश्वर ये दोनों ईश्वर के अर्थात् शिव के ही रूप हैं। विश्वनाथ प्रतिपालन करने वाला और रामेश्वर शत्रुओं का नाश करने वाला। ऐसे ये विश्वनाथ एवं रामेश्वर इन दोनों की यह यात्रा है। काशीविश्वनाथ का अर्थात् गंगाजल का उस रामेश्वरम् पर अभिषेक करना और कन्याकुमारी, जो उस शिव की प्रतीक्षा करते हुए, उसकी आराधना करते हुए उस शिव में ही विलीन हुई भक्त, वहाँ के तीन समुद्रों के संगम के पानी का उस काशीविश्वनाथ पर अभिषेक करना। यही उस जीव-शिव की भेंट है।
कालीमाता बोले संगे बोले कन्याकुमारी ही
अन्नपूर्णा ज्याचे हाती दत्तगुरू एकमुखी।
वह अन्नपूर्णा यानी शिव की अर्धांगिनी।
कन्याकुमारी यानी जीव-शिव को जोड़नेवाला सेतु; वहीं, कालीमाता यानी साक्षात् महिषासुरमर्दिनी, इनकी यह यात्रा है । इसीलिए वह सम्पूर्ण रूप से कल्याण करने वाली है और इसीलिए यहाँ की प्रदक्षिणा का मार्ग नामाकृति है।
रचना:
इस सर्वतोभद्र कुंभयात्रा में एक तरफ श्रीकाशीविश्वेश्वर के गंगाजल का जलाशय था। उसके पास ही श्रीकाशीविश्वेश्वर की तस्वीर और उसके आगे उसका शिवलिंग रखा गया था। वहीं, दूसरी तरफ श्रीरामेश्वरम् के पानी का जलाशय और उसके पास श्रीरामेश्वर की तस्वीर और शिवलिंग रखा गया था।
यह यात्रा करने वाले श्रद्धावानों को एक कावर दी गई। उन्होंने यह कावर गंगाजल से भरकर और नामप्रदक्षिणा करके, उस जल का रामेश्वरम् पर अभिषेक किया और यह अभिषेक करते समय 'पार्वतीपते हर हर महादेव' यह गजर किया गया।
पुण्यफल:
शिव की राह देखते हुए, उसकी आराधना करते हुए कन्याकुमारी यह भक्त उनमें ही विलीन हो गई, एकरूप हुई। यह यात्रा मेरे जीव-शिव का मिलन करने वाला ऐसा ही एक सेतु थी। जीव-शिव का मीलन यानी मेरे मन को पवित्र बुद्धि की आज्ञा से बनाना, बदलवाना, आचरण करने को कहना। यह यात्रा करते समय कावर में पानी लेकर उस शिवशंकर को अभिषेक करते हुए श्रद्धावानों का शरीर थक गया, उस मन को बुद्धि की तरह बर्ताव करने को कहा और वहीँ श्रद्धावानों के जीव-शिव का मीलन हुआ। इस यात्रा ने श्रद्धावानों को विवेक प्रदान किया। जीवन में शुभ, हितकारी बातें करके जीवन सुखमय आनंददायी बनाने के लिए अशुभ अहितकारक चीजों का विनाश करना, यह हमें यह विवेक सिखाता है, यह सद्सद्विवेकबुद्धि वह प्रदान करता है।
* कुंभयात्रा से हमारे मन का भूतकाल का - भूतों का भय कम होता है।
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