शुभारम्भ
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दत्त येऊनिया उभा ठाकला
'गोड तुझे रूप, गोड तुझे नाम' ये शब्द मेरे मन में जिससे सम्बंधित हैं, वह मेरा दत्तात्रय और दत्तात्रेय का जो रूप और नाम मेरे अंतर्बाह्य में जो प्रेमगंध का मोगरा खिलाता है और बहार भी लाता है, वह रूप यानी अवधूत, नाम अनसूयानंदन और वह सुगंध, मुझे सदैव मोहित करनेवाला सुगंध यानी उसका आशीर्वाद- अवधूतचिंतन श्रीगुरुदेवदत्त।
भारतीय संस्कृति में अवधूत एक स्थितप्रज्ञ सिद्धपुरुष होता है। यह दिगंबर यानी दिशाओं का वस्त्र ओढनेवाला होता है। योगसाधना, तपश्चर्या और सहजध्यान ऐसे त्रिविध अंतर्मुख कार्य में अवधूत सदैव निमग्न रहता है। ऐसे अनेक अवधूत हो चुके हैं - परन्तु मेरा दत्तात्रेय यह एकमात्र अद्वितीय परमश्रेष्ठ अवधूत अर्थात ब्रम्हपुरुष।
‘अवधूत उपनिषद’ में ‘अवधूत’ नाम का ध्यान बहुत ही सुन्दरता से किया गया है
'अ' - ‘अ’ यानी अक्षरत्व - यह अवधूत
‘अ’ - क्षर अर्थात नित्य है - साक्षात् अक्षरब्रम्ह है और कार्यशील सिद्ध है, क्योंकि ‘अक्षरत्व’ का एक अर्थ 'कार्यस्थिति' यह है।
"व" - व यानी वरण्यत्व अर्थात श्रेयस की, श्रेष्ठत्व की परिसीमा और पूर्णत्व की पराकाष्ठा।
"धू" - धू यानी बंधनमुक्त और धोया हुआ; अर्थात पूर्णशुद्ध'।
"त" - 'तत् त्वम् असि' इस आत्मज्ञान के महावाक्य के आद्य व अंतिम स्वरूप यानी 'त' - अर्थात 'त मतलब निर्गुण की पहचान कराके देने वाला सगुणत्व'।
इस मेरे अवधूत के सहजचिंतन में से उसके चौबीस गुरु प्रकाशित हुए- उस दत्तात्रेय के उसे स्वयं से भी प्रिय होनेवाले श्रद्धावानों के लिए।
सर्वश्रेष्ठ आद्य गायत्रीमंत्र के चौबीस अक्षरों से ही चौबीस गुरुतत्त्व प्रवाहित हुए और मेरे अवधूत के करुणामयी चिंतन में से स्थूल रूप में प्रकट हुए।
मनुष्य के निर्माण के लिए और पुनरुत्थान के लिए, दरअसल पूरे मनुष्य जन्म के लिए ही आवश्यक और कार्यरत होती हैं, उन गुणसूत्रों (क्रोमोझोम्स chromosomes) की २३ जोड़ियाँ। ये २३ जोड़ियाँ अर्थात ४६ गुणसूत्र माता के पास भी होते हैं और पिता के पास भी होते हैं। उन मातापिताओं से उनकी संतान बनते समय, माता की ओर से २३ और पिता की ओर से २३ गुणसूत्र एक होते हैं और फिर से ४६ गुणसूत्रों के ‘नरदेह’ का निर्माण होता है।
उस संतान ने माता की ओर से २३ चैनल्स (देखिए टिप्पणी) का स्वीकार किया हुआ होता है और पिता की ओर से भी सिर्फ २३ ही। अर्थात् नरजन्म लेते समय माता की ओर से और पिता की ओर से प्रत्येकी २३ ‘स्वीकृत’ चीजें (आये हुए गुणसूत्र) और २३ ‘अस्वीकृत’ (न आये हुए गुणसूत्र) इनकी पहचान हो चुकी होती है और उससे ही २४वाँ गुरु अर्थात् ‘नरदेह’ अर्थात् श्रेष्ठगुरु निर्माण हुआ होता है।
टिप्पणी: चैनल यानी जानकारी, साधनसामग्री, रसद बिना किसी दिक्कत के और निश्चित रूप से जाने का मार्ग; अथवा कोई भी प्रक्रिया शुरू से लेकर अंत तक पूर्ण होने के लिए क्रमानुसार आनेवालीं प्रक्रियाएँ एवं माध्यम।
।। श्रीदत्तात्रेयार्पणमस्तु।।
- डॉ. अनिरुद्ध धै. जोशी
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